श्रीनाथजी के अष्ट दर्शन

श्रीनाथजी के अष्ट दर्शन
श्रीगोवर्धननाथ पाद युगलं हैयंगवीनप्रियम्‌, 
नित्यं श्रीमथुराधिंप सुखकरं श्रीविट्ठलेश मुदा । 
श्रीमद्वारवतीश गोकुलपति श्रीगोकुलेन्दुं विभुम्‌, 
श्रीमन्मन्मथ मोहनं नटवरं श्रीबालकृष्णं भजे ॥ 
आचार्य चरण, प्रभुचरण सहित सप्त आचार्य वर्णन- 
श्रीमद्वल्लभविट्ठलौ गिरिधरं गोविंदरायाभिधम्‌, 
श्रीमद् बालकृष्ण गोकुलपतिनाथ रघूणां तथा 
एवं श्रीयदुनायकं किल घनश्यामं च तद्वंशजान्‌, 
कालिन्दीं स्वगुरुं गिरिं गुरुविभूं स्वीयंप्रभुंश्च स्मरेत्‌ ॥

पुष्टि मार्ग में भगवान कृष्ण के उस स्वरूप की आराधना की जाती है जिसमें उन्होंने बाएँ हाथ से गोवर्धन पर्वत उठा रखा है और उनका दायाँ हाथ कमर पर है।
श्रीनाथ जी का बायाँ हाथ 1410 में गोवर्धन पर्वत पर प्रकट हुआ। उनका मुख तब प्रकट हुआ जब श्री वल्लभाचार्यजी का जन्म 1479 में हुआ। अर्थात्‌ कमल के समान मुख का प्राकट्य हुआ।
1493 में श्रीवल्लभाचार्य को अर्धरात्रि में भगवान श्रीनाथ जी के दर्शन हुए।
साधू पांडे जो गोवर्धन पर्वत की तलहटी में रहते थे उनकी एक गाय थी। एक दिन गाय ने श्रीनाथ जी को दूध चढ़ाया। शाम को दुहने पर दूध न मिला तो दूसरे दिन साधू पांडे गाय के पीछे गया और पर्वत पर श्रीनाथजी के दर्शन पाकर धन्य हो गया।
दूसरी सुबह सब लोग पर्वत पर गए तो देखा कि वहाँ दैवीय बालक भाग रहा था। वल्लभाचार्य को उन्होंने आदेश दिया कि मुझे एक स्थल पर विराजित कर नित्य प्रति मेरी सेवा करो। तभी से श्रीनाथ जी की सेवा मानव दिनचर्या के अनुरूप की जाती है। इसलिए इनके मंगला, श्रृंगार, ग्वाल, राजभोग, उत्थापन, आरती, भोग, शयन के दर्शन होते हैं।
श्रीनाथजी की सेवा बाल भाव से होती है अतः प्रभु को बार-बार भोग लगाया जाता है। बालक पर किसी की दृष्टि न पड़ जाये उनको दर्शन कुछ समयान्तराल पर बीच-बीच में खुलते हैं जिन्हें झांकी भी कहा जाता है। उत्सवों जैसे जन्माष्टमी, नन्दमहोत्सव, अन्नकूट, बसन्तपंचमी, फूलडोल, रामनवमी, अक्षय तृतीया एवं ग्रहणादि में इसे विशेष दर्शन के लिए खोला जाता है।
गर्मी के दिनों में बालक को प्रातःकाल सुखद नींद आती है अतः मंगला के दर्शन (पहला दर्शन) देर से होता है। चूंकि सर्दी में बालक जल्दी उठकर कुछ खाना चाहता है अतः उन्हें जल्दी ही मंगल-भोग अरोगाया जाता है। इन दिनों दर्शन प्रातःकाल ४ बजे के लगभग शुरु हो जाता है। रात्रि को प्रगाढ़ निद्रा में सुलाने के लिए अष्टछाप कवियों के पदों का गान होता है। शयनान्तर बीन बजाई जाती है। ग्रीष्मकाल में पंखे झुलाए जाते हैं तथा शीतकाल में उष्णता पहुँचाने की भावना से अंगीठी रखी जाती है। भगवान के अष्ट दर्शनों का उल्लेख इस प्रकार है:-

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१. मंगला

श्रीनाथजी को प्रातःकाल शंखनाद करके जगाया जाता है। उसके बाद ये दर्शन के लिए खुलते हैं। गर्मी में आड़बन्द और उपरणा आदि का हल्का श्रृंगार होता है वही शीतकाल में दुग्गल धारण करते हैं। ये दर्शन बाल-कृष्ण के भाव से होता है। दर्शन में आरती उतारी जाती है।

 
  

२. श्रृंगार

मंगला के दर्शन के बाद दूसरे दर्शन श्रृंगार के होते है। इसमें श्रीगोकुलचन्द्रमाजी के दर्शन के भाव श्रीनन्ददासजी कीर्तन में गाते है। दिवस में भोज सखा व रात्रि विहार में नई चन्द्र सहचरी की इस दर्शन में आसक्ति है। इसमें फेंटा का श्रृंगार, लीला भाव उदर स्थान से प्राकट्‌य व मुख्य भाव मानसी गंगा के ऊपर, पीपल के पेड़ के नीचे श्रीगिरिराजजी में निवास है। इस समय श्रृंगार अत्यन्त मूल्यवान एवं भव्य होता है एवं श्रीजी को वेणु धरायी जाती है और दर्पण दिखाया जाता है। भोग में सूखे मेवे धराये जाते है।
       

३. ग्वाल

 श्रृंगार के बाद श्रीजी दर्शन के लिए खुलते हैं। ये दर्शन श्रीद्वारिकानाथजी के भाव से खुलते हैं।

        

 

 

 

४. राजभोग

 इस चतुर्थ दर्शन में श्रीनाथजी के दर्शन का भाव है तथा श्रीकुम्भनदासजी कीर्तन करते है। दिवस लीला में अर्जुन सखा व रात्रि विहार में बिसारवा सहचरी की इस दर्शन में आसक्ति है। इसमें कूल्हे का श्रृंगार व निकुंज लीला का अनुभव, हृदय स्थान से प्राकट्‌य है। अन्योर में सद्‌दु पांडे के नीम के वृक्ष नीचे श्रीगिरिराजजी में इनका निवास है।
यह दर्शन भव्यतम होते है। श्रृंगार भी बहुत भारी और मूल्यवान होता है। कुसुमहार (माला) धराने के बाद ये दर्शन खुलते है। ये दर्शन देवाधिदेव श्रीनाथजी के भाव से है।
            सखडी, अनसखडी सभी प्रकार का भोग अरोगाया जाता है, जिसमें स्वादिष्ट, पौष्टिक-पवित्र पकवानों तथा लड्‌डू, वासुन्दी, पुडी, खीर, आम्ररस आदि का समावेश होता है। आरती की जाती है। राजभोग के उपरान्त श्रीजी का अनोसर होता है और पट बन्द हो जाते है। यह प्रभु के विश्राम का समय माना जाता है।

५. उत्थापन
संध्याकालीन इस झांकी में श्रीमथुरेशजी दर्शन देते है और सूरदासजी कीर्तन गाते है। सारस्वत कल्प में दिवस में कृष्ण सखा व रात्रि विहार में चम्पकलता की दर्शन में आसक्ति है। पाग का श्रृंगार व मानलीला का अनुभव तथा मुखारविन्द में से प्राकट्य है। सघन कंदरा परासोली में चन्द्र सरोवर के ऊपर श्रीगिरिराजजी में निवास है। यह सांयकाल के प्रथम दर्शन है। लगभग ३.३० बजे शंखनाद के द्वारा भगवान को जगाया जाता है। विभिन्न प्रकार के फलफूल और दूध की बनी सामग्री का भोग लगाया जाता है।
       

६ . भोग

 इस समय श्रीगोकुलनाथजी दर्शन देते है व श्रीचतुर्भुजदासजी कीर्तन करते है। सारस्वत कल्प में दिवस में सुबाहु सखा व रात्रि विहार में सुशीला सहचरी की आसक्ति है। इसमें सेहरा का श्रृंगार, अन्नकूट की लीला का अनुभव हृदय स्थान मे से प्राकट्‌य है। रूदन कुंड के ऊपर आवली के पेड़ के नीचे नवा कुंड के पास श्रीगिरिराजजी में निवास है।  ''उत्थापन'' के लगभग एक घंटे बाद भोग के दर्शन होते है। श्रीनाथजी के समक्ष एक छडीदार, सोने की छडी लेकर मुगलकालीन वेष-भूषा में खडा रहता है। गर्मी में इस समय फव्वारे चलते है, जाड़ों में अंगीठी रहती हैं। मौसम अनुकूल होने पर फूलो का श्रृंगार, फूलों का बंगला आदि सेवा होती है। इस समय भोग अधिक मात्रा में रहता है । जिसमें फल-फूल, ठोर आदि की प्रधानता रहती है।

७ . आरती
इस समय श्रीविट्‌ठलनाथजी दर्शन देते है और श्रीछीतस्वामी कीर्तन करते है। सारस्वत कल्प में दिवस में सुबल सखा व रात्रि विहार में पद्‌मा सहचरी की इस दर्शन में आसक्ति है। श्रृंगार दुमालों, श्रीगुसांईजी की जन्मलीला का अनुभव है। दर्शन का मुख्य भाव बिलछू कुण्ड के ऊपर श्याम तमाल के नीचे श्रीगिरिराजजी में निवास है।
भगवान श्रीकृष्ण गोचारण के उपरान्त वन से पुनः घर लौटते है। माँ याशोदा अपने पुत्र की आरती उतारती है यही भाव इन दर्शनों में है। आरती दर्शन के उपरान्त श्रीजी का श्रृंगार हल्का कर दिया जाता है और भोग आता है। चक्रराज सुदर्शन को भी भोग लगाया जाता है और ध्वजाएँ पौढ़ा दी जाती है।
       

८ . शयन

इस आठवें व अन्तिम दर्शन में, श्रीमदनमोहन के स्वरूप के भाव का कीर्तन श्रीकृष्णदासजी अधिकारीजी करते है। दिवस में ऋषभ सखा व रात्रि विहार में ललिता सहचरी की सहरूपासक्ति है। इसमें मुकुट का श्रृंगार व रासलीला का अनुभव, चरण स्थान से प्राकट्य है। मुख्य भाव बिलछू कुण्ड के ऊपर श्याम तमाल व कदम्ब के वृक्ष के नीचे श्रीगिरिराजजी में निवास है।             ये दर्शन सर्वदा नहीं होते। दशहरे से मार्गशीर्ष सुदी सप्तमी तक और बसंत पंचमी से रामनवमी तक बाहर खुलते है। मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी से बसंत पंचमी के एक दिन पूर्व तक भीतर होते है, तथा रामनवमी से दशहरे तक एकदम बन्द हो जाते है। इन दर्शनों में आरती होती है, प्रभु पान अरोगते है। सखड़ी-अनसखडी आदि नाना प्रकार की सामग्री का भोग लगाया जाता है।
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