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श्री गोवर्धनवासी सांवरे लाल

श्री गोवर्धनवासी सांवरे लाल तुम बिन रह्यो न जाये ।
हों ब्रजराज लडे तें लाडिले ॥
बंकचिते मुसकाय के लाल सुंदर वदन दिखाय ।
लोचन तलफें मीन ज्यों लाल पलछिन कल्प विहाय ॥१॥
सप्तक स्वर बंधान सों लाल मोहन वेणु बजाय ।
सुरत सुहाई बांधि के लाल मधुरे मधुर गाय ॥२॥
रसिक रसिक रसीली बोलनी लाल गिरि चढ गैया बुलाय ।
गांग बुलाई धूमरी लाल ऊंची टेर सुनाय ॥३॥
दृष्टि परी जा दिवस तें लाल तबतें रुचे नही आन ।
रजनी नींद न आवही मोहि विसर्यो भोजन पान ॥४॥
दरसन को नयना तपें लाल वचनन को सुन कान ।
मिलवे को हियरा तपे मेरे जिय के जीवन प्रान ॥५॥
मन अभिलाखा व्हे रही लाल लागत नयन निमेष ।
इक टक देखु आवते प्यारो नागर नटवर भेष ॥६॥
पूरण शशि मुख देख के लाल चित चोट्यो वाहि ओर ।
रूप सुधारस पान के लाल सादर कुमुद चकोर ॥७॥
लोक लाज कुळ वेद की छांड्यो सकल विवेक ।
लहल कली रवि ज्यों बढे लाल छिन छिन प्रति विशेष ॥८॥
मन्मथ कोटिक वारने लाल निरखत डगमगी चाल ।
युवति जन मन फंदना लाल अंबुज नयन विशाल ॥९॥
यह रट लागी लाडिये लाल जैसे चातक मोर ।
प्रेमनीर वरखा करो लाल नव घन नंद किशोर ॥१०॥
कुंज भवन क्रीडा करो लाल सुखनिधि मदन गोपाल ।
हम श्री वृंदावन मालती तुम भोगी भ्रमर भूपाल ॥११॥
युग युग अविचल राखिये लाल यह सुख शैल निवास ।
श्री गोवर्धनधर रूप पर बलिहारी चतुर्भुज दास ॥१२॥

यह मांगो गोपीजन वल्लभ

यह मांगो गोपीजन वल्लभ ।
मानुस जन्म और हरि सेवा, ब्रज बसिबो दीजे मोही सुल्लभ ॥१॥
श्री वल्लभ कुल को हों चेरो,वल्लभ जन को दास कहाऊं ।
श्री जमुना जल नित प्रति न्हाऊं, मन वच कर्म कृष्ण रस गुन गाऊं ॥२॥
श्री भागवत श्रवन सुनो नित, इन तजि हित कहूं अनत ना लाऊं ।
‘परमानंद दास’ यह मांगत, नित निरखों कबहूं न अघाऊं ॥३॥

भरोसो वल्लभ ही को राखो

भरोसो वल्लभ ही को राखो।
सगरे काज सरेंगे छिन में, इन ही के गुन भाखो ॥१॥
निस दिन संग करो भक्तन को, असमर्पित नही चाखो।
वल्लभ श्री वल्लभ पद रज बिन और तत्व सब नाखो ॥२॥

आसरो एक दृढ श्री वल्लभाधीश को

आसरो एक दृढ श्री वल्लभाधीश को।
मानसी रीत की मुख्य सेवा व्यसन, लोक वैदिक त्याग शरन गोपीश को॥१॥
दीनता भाव उदबोध गुनगान सो घोष त्रिय भावना उभय जाने।
श्री कृष्ण नाम स्फुरे पल ना आज्ञा टरे कृति वचन विश्वास दृढ चित्त आने॥२॥
भगवदी जान सतसंग को अनुसरे, नादेखे दोष अरु सत्य भाखे।
पुष्टि पथ मर्म दश धर्म यह विधि कहे, सदा चित्त में द्वारकेश राखे॥३॥

भरोसो श्री वल्लभ ही को भारी

भरोसो श्री वल्लभ ही को भारी।
काहे को मन भटकत डोलत, जो चाहे फलकारी ॥१॥
इनको छांड औरन को जे सेवे, सो कहिये असुरारी।
पुरुषोत्तम प्रभु नाम मंत्र दे चरन कमल शिर धारी ॥२॥

श्री वल्लभ भले बुरे दोउ तेरे

श्री वल्लभ भले बुरे दोउ तेरे।
तुमही हमरी लाज बढाई, विनती सुनो प्रभु मेरे ॥
अन्य देव सब रंक भिखारी, देखे बहुत घनेरे ।
हरि प्रताप बल गिनत न काहु, निडर भये सब चेरे ॥२॥
सब त्यज तुम शरणागत आयो, दृढ कर चरण गहेरे ।
“सूरदास” प्रभु तुम्हारे मिलेते, पाये सुख जु घनेरे ॥३॥

श्री गोवर्धन वासी सांवरे लाल तुम

श्री गोवर्धन वासी सांवरे लाल तुम बिन रह्यो न जाय हो॥ बृजराज लडेतोलाडिले॥
बंक चिते मुसकाय के लाल सुंदर वदन दिखाय ॥
लोचन तल पे मीन ज्यों लाल, पलछिन कल्प बिहाय हो  ॥१॥
सप्त स्वर बंधान सों लाल, मोहन वेणु बजाय ॥
सुरत सुहाइ बांधिके नेक, मधुरे मधुर स्वर गाय हो ॥२॥
रसिक रसीली बोलनी लाल, गिरि चढि गैयां बुलाय ॥
गांग बुलाइ धूमरी नेंक, ऊँची टेर सुनाय हो ॥३॥
दृष्टि परी जा दिवसतें लाल, तबते रुचे नहिं आन ॥
रजनी नींद न आवही मोहे, बिसर्यो भोजन पान हो ॥४॥
दर्शन को यनुमा तपे लाल बचन सुनन को कान हो ।
मिलिवे को  हीयरो तपे मेरे जिय के जीवन प्राण हों ॥५॥
मन अभिलाषा ह्वे रही लाल, लगत नयन निमेष ॥
एकटक देखूं आवतो प्यारो, नागर नटवर भेष  हों ॥६॥
पूर्ण शशि मुख देख के लाल, चित चोट्यो बाही ठोर ॥
रूप सुधारस पान के लाल, सादर चंद्र चकोर हो ॥७॥
लोक लाज कुल वेद की लाल, छांड्यो सकल विवेक ॥
कमल कली रवि ज्यों बढे लाल,  क्षणु क्षणु प्रीति विशेष हो ॥८॥
मन्मथ कोटिक वारने लाल, देखी डगमग चाल ॥
युवती जन मन फंदना लाल, अंबुज नयन विशाल ॥९॥
यह रट लागी लाडिले लाल, जैसे चातक मोर ॥
प्रेम नीर वर्षाय के लाल नवघन नंदकिशोर हो ॥१०॥
कुंज भवन क्रीडा करे लाल, सुखनिधि मदन गोपाल ॥
हम श्री वृंदावन मालती लाल, तुम भोगी भ्रमर भूपाल हो ॥११॥
युग युग अविचल राखिये लाल, यह सुख शैल निवास ॥
श्री गोवर्धनधर रूप पें बलजाय चतुर्भुज दास ॥१२॥

वृंदावन एक पलक जो रहिये

वृंदावन एक पलक जो रहिये।
जन्म जन्म के पाप कटत हे कृष्ण कृष्ण मुख कहिये ॥१॥
महाप्रसाद और जल यमुना को तनक तनक भर लइये।
सूरदास वैकुंठ मधुपुरी भाग्य बिना कहां पइये ॥२॥

चकइरी चल चरण सरोवर

चकइरी चल चरण सरोवर जहां नहि प्रेम वियोग ।
जहां भ्रम निशा होत नहिं कबहुं सो सायर सुखयोग ॥१॥
सनकसे हंस मीन शिव मुनिजन नख रवि प्रभा प्रकाश ।
प्रफुलित कमल निमिश नहिं शशीडर गुंजत निगम सुवास ।२॥
जिंहिंसर सुभग मुक्ति मुक्ताफल विमल सुकृत जल पीजे ।
सो सर छांड क्यों कुबुद्धि विहंगम इहां रही कहा कीजे ॥३॥
जहां श्री सहस्त्र सहित हरि क्रीडत शोभित सूरजदास ।
अब न सुहाय विषय रस छिल्लर वह समुद्र की आस ॥४॥

हमारे श्री विट्ठल नाथ धनी

हमारे श्री विट्ठल नाथ धनी ।
भव सागर ते काढे कृपानिधी राखे शरन अपनी ॥१॥
रसना रटत रहत निशिवासर शेष सहस्त्र फनी ।
छीतस्वामी गिरिधरन श्री विट्ठल त्रिभुवन मुकुट मनी ॥२॥

गोपी प्रेम की ध्वजा

गोपी प्रेम की ध्वजा ।
निज गोपाल किते अपने वश उरधर श्याम भुजा ॥१॥
शुक मुनि व्यास प्रशंसा कीनी ऊधो संत सराही ।
भुरि भाग्य गोकुल की वनिता अति पुनीत भवमांहि ॥२॥
कहा भयो जो विप्रकुल जनम्यो जो हरिसेवा नाही ।
सोई कुलीन दास परमानंद जो हरि सन्मुख धाई ॥३॥

परम कृपाल श्री वल्लभ नंदन

परम कृपाल श्री वल्लभ नंदन करत कृपा निज हाथ दे माथे ।
जे जन शरण आय अनुसरही गहे सोंपत श्री गोवर्धननाथ ॥१॥
परम उदार चतुर चिंतामणि राखत भवधारा बह्यो जाते ।
भजि कृष्णदास काज सब सरही जो जाने श्री विट्ठलनाथे ॥२॥

तिहारे चरन कमल को माहत्म्य

तिहारे चरन कमल को माहत्म्य शिव जाने के गौतम नारी ।
जटाजुट मध्य पावनी गंगा अजहु लिये फिरत त्रिपुरारी ॥१॥
के जाने शुकदेव महामुनि के जाने सनकादिक चार ।
के जाने विरोचन को सुत सर्वस्व दे मेटी कुलगार ॥२॥
के जाने नारद मुनि ज्ञानी गुप्त फिरत त्रैलोक मंझार ।
के जाने हरिजन परमानंद जिनके हृदय बसत भुजचार ॥३॥

ओर कोऊ समझे सो समझ

ओर कोऊ समझे सो समझे हमकु इतनी समझ भली ।
ठाकुर नंदकिशोर हमारे ठकुरानी वृषभान लली ॥१॥
श्रीदामा आदि सखा श्याम के श्यामा संग ललितादि अली ।
व्रजपुर वास शैल वन फिहरत कुंजन कुंजन रंगरली ॥२॥
इनके लाड चाहु सुख सेवा भाव वेल रस फलन फली ।
कहि भगवान हित रामराय प्रभु सबन तें इनकी कृपा भली ॥३॥