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माई मेरो लाल दूल्हे बनी आयो

ब्याह और शेहरा के पद

माई मेरो लाल दूल्हे बनी आयो |
रत्नजटितको  सीस  शेहरो  हिरा  मोतिन   लाल जरायो || १ ||
नन्दरायको    कुंवर   कन्हैया   जसुमति   लाड   लड़ायो |
रसिक प्रीतमजूकी बानिक निरखत रोम रोम सुख पायो || २ ||

लगन इन नयनन की वाकी

लगन इन नयनन की वाकी |
देखें हीं  दु:ख  बिने  देखेहीं  दु:ख   पीरहोत  दुहुधा की || १  ||
टारी न  टर  तजाय  बिन  देखे  जिहिं  फबत  हेंसाकी |
रसिकराय प्रीतम मन अटक्यो कहूँ लगत नहीं टांकी || २  ||

हिम ऋतु शिशिर ऋतु अति सुखदाई

हिम ऋतु शिशिर ऋतु अति सुखदाई |
प्यारी जू  के  फरगुल    सोहे    प्रीतम   ओढ़े   सरस कवाई || १  ||
पर गये परदा ललित  तिवारी  धरी  अंगीठी  अति  सुखदाई |
जरत अंगार  धूम  अम्बर  लों  सरस सुगंध रह्यो तहां छाई || २  |
जब जब मधुर सीत तन व्यापत बैठत  अंग सों अंग मिलाई |
 श्री वल्लभ   पद  रज  प्रताप  ते  रसिक  सदा   बलि   जाई || ३  ||

॥श्री वल्लभ साखी॥

श्री हरिरायजी महाप्रभुजी विरचित वल्लभ साखी

श्री वल्लभ पद वन्दों सदा, सरस होत सब ज्ञान ।
रसिक रटत आनंद सों, करत सुधा रस पान ॥१॥
और कछु जान्यो नही, बिना श्री वल्लभ एक।
कर गहि के छांडे नही, जिनकी ऐसी टेक ॥२॥
श्री वल्लभ वल्लभ रटत हो, जहा देखो तहा येह।
इनहीं छांड औरही भजे, तो जरि जावो वह देह ॥३॥
देवी देव आराधिके, भूल्यो सब संसार ।
श्री वल्लभ नाम नौका बिना, काहुक उतर्यो पार॥४॥
ऐसे प्रभु क्यों बिसारिये, जाकी कृपा अपार।
पल पल में रटते रहो, श्री वल्लभ नाम उचार ॥५॥
श्री वल्लभ नाम अगाध है, जहाँ तहाँ तु मत बोल।
जब हरिजन ग्राहक मिले, वा आगे तू खोल॥६॥
श्री वल्लभ वर को छांडि के, और देव को धाय ।
ता मुख पनैया कूटिये, जब लग कूटि आय॥७॥
श्री वल्लभ वल्लभ रटत हो, वल्लभ जीवन प्राण ।
वल्लभ कबहू न बिसारिहों, हो मोहि मात पिता की आन॥८॥
मैं इन चरन न छांडि हों, श्री वल्लभ वर ईश ॥
जो लो तन में श्वास है, तो लो चरन धरो मम शीश॥९॥
बहुत दिना भटकत फिर्यो, कछु ना आयो साथ।
श्री वल्लभ सुमर्यो तबे, पर्यो पदारथ हाथ॥१०॥
बहे जात भव सिंधु में, देवी सृष्टी आपार।
तिनके करन उद्धार प्रभु, प्रकटे परम उदार॥११॥
श्री वल्लभ करुणा करी, कलि में ल्यो अवतार ।
महा पतित उद्धार के, कीनों यश विस्तार॥१२॥
श्री वल्लभ वल्लभ कहत हो, वल्लभ चितवन बैन ।
श्री वल्लभ छांड औरही भजे, तो फूट जावो दोऊ नैन ॥१३॥
धूर परो वा वदन में, जाको चित नही ठोर।
श्री वल्लभ वर को बिसरा के, नयनन निरखे और ॥१४॥
शरणागति जब लेत है, करत त्रिविध दुःख दूर।
शोक मोह ते काढि के, देत आनंद भरपूर ॥१५॥
यश ही फेल्यो जगत में, अधम उद्धारण आय ।
तिनकी विनती करत हो, चरन कमल चित लाय ॥१६॥
पतितन में विख्यात हो, महापतित मम नाम ।
अब याचक होये जाछ हो, शरणागति सब याम ॥१७॥
श्री वल्लभ विट्ठलनाथ जु, सुमिरो एक घडी ।
ताके पातक यों जरे, ज्यों अग्नि में लकडी ॥१८॥
धरणी अति व्याकुल भयी, विधि सो करी पुकार।
श्री वल्लभ अवतार ले, तार्यो सब संसार ॥१९॥
श्री वल्लभ राजकुमार बिनु, मिथ्या सब संसार ।
चढि कागद कि नाव नाव पर, काहु को उतार्यो पार॥२०॥
कलियुग ने सब धर्म के, द्वारे रोके आय ।
श्री वल्लभ खिडकी प्रेम की, निकस जाय सो जाय ॥२१॥
भगवद भगवदीय एक हैं, तिन सो राखों नेह ।
भवसागर के तरन की, नीकी नौका येह ॥२२॥
श्री वल्लभ कल्पद्रुम फल्यो, फल लाग्यो विट्ठलेश ।
शाखा सब बालक भये, ताको पार ना पावत शेष ॥२३॥
श्री वल्लभ आवत में सुने, कछु नियरे कछु दूर।
इन पलकन सो मगझार हो, व्रज गलियन की धूर॥२४॥
कृपा सिंधु जल सींच के, राख्यो जीवन मूल ।
स्नेह बिना मरजात है, प्रेम बाग के फूल ॥२५॥
जग में मिलना अनूप है, भगवदियों का संग।
तिनके संग प्रताप तें, होत श्याम सो रंग ॥२६॥
हरि जन आवे वारणे, हँसी हँसी नावे शीश।
उनके मन की वे जाने, मेरे मन जगदीश॥२७॥
हरि बडे हरि जन बडे, बडे हैं हरि के दास।
हरिजन सों हरि पाँवहीं, जो हैं इन के पास॥२८॥
मन नग ताको दीजिये, जो प्रेम पारखी होय।
नातर रहिये मौन व्हे, काहे जीवन खोय ॥२९॥
प्रेम पारखी जो मिले, ताको करि मनुहार ।
तिन सों प्रिय प्रीतम मिले, सब कुछ दीजे वार ॥३०॥
रंचक दोष ना देखिये, वे गुन प्रेम अमोल ।
प्रेम सुहागी जो मिले, तासों अंतर खोल ॥३१॥
साधन करो दृढ आसरो, फूल भजवो फल एक।
पलक पलक के ऊपरे, वारो कल्प अनेक ॥३२॥
श्री वल्लभ जीवन प्राण हैं, नयनन राखो घेर ।
पलकन के परदा करो, जान न देहो फेर॥३३॥
पूरण ब्रह्म प्रकट भये, श्री लक्षमण भट्ट गेह ।
निजजन पर बरखत सदा, श्री व्रजपति पद नेह ॥३४॥
जागत सोवत स्वपन में, भोर द्योष निश सांझ ।
श्री वल्लभ व्रज ईश के, चरण धरो हिय माँझ॥३५॥
हा हा मानो कहत हो, करि गिरिधर सो नेह।
बहुरि ना ऐसी पावही, उत्तम मानुष देह॥३६॥
चतुराई चूल्हे परो, ज्ञानी को यम खाऊ।
जा तन सो सेवा नही, सो जडामूल सो जाऊ॥३७॥
देखी देह सुरंग गह, मति भूले मन माहि।
श्री वल्लभ बिनु और कोऊ, तेरो संगी नाही॥३८॥
तेरी साथिन देह नही, याके रंग मत भूल।
अंत समय पछतायेगो, तुरत मिलेगी धूल ॥३९॥
देही देखी सुरंग यह, मती लडावे लाड।
गणिका की सी मित्रता, अंत होयेगी भाड॥४०॥
देही देख सुरंग यह मत भूले तु गवार।
हाड मांस की कोठरी, भीतर भरी भंगार॥४१॥
महामान मद चातुरी, गरवाई और नेह।
ये पाँचों जब जायेंगे, तब मानो सुख देह॥४२॥
भवसागर के तारण की, बडी अटपटी चाल।
श्री विट्ठलेश प्रताप बल, उतरत है तत्काल ॥४३॥
मीन रहत जल आसरे, निकसत ही मर जाय ।
त्यों श्री विट्ठलनाथ के, चरण कमल चित लाय॥४४॥
श्री वल्लभ को कल्पद्रुम, छाय रह्यो जग मांहि।
पुरुषोत्तम फल देत हैं, नेक जो बैठों छांह ॥४५॥
चतुराई सोई भली, जो कृष्ण कथा रस लीन ।
परधन परमन हरण को, कहिये वाहि प्रवीण॥४६॥
चतुराई चूल्हे परो, ज्ञानी को यम खाऊ।
दया भाव हरि भक्ति बिना, ज्ञान परो जरि जाव ॥४७॥
श्री वल्लभ सुमर्यो नही, बोलियो अटपटे बोल।
ताकि जाननी बोज़न मरी, वृथा वजावे ढोल॥४८॥
घर आवे वैष्णव जबहीं, दीजे चार रतन।
आसन, जल, वाणी मधुर, यथाशक्ति सो अन्न॥४९॥
श्री वल्लभ धीरज धरे ते, कुंजर मन भर खाय ।
एक टूक के कारणे, स्वान बहुत धर जाय॥५०॥
रसिक जन बहु ना मिले, सिहा यूथ नहि होय।
विरहन बेल जहाँ तहाँ नही, घट घट प्रेम न होय॥५१॥
हरिजन की हाँसी करे, ताहि सकल विधि हानि।
तापर कोपत व्रजपति, दुःख को हानि परमान॥५२॥
छिन उतरे छिन ही चढे, छिन छिन आतुर होय।
निश वासर भीज्यो रहे, प्रेमी कहिये सोय॥५३॥
उर बिच गोकुल नयन जल, मुख श्री वल्लभ नाम।
अस ता दृशी के संग तें, होत सकल सिध काम॥५४॥
बिनु देखे आतुर रहे, प्रेम बाग को फूल।
चित्त ना मन ताहि बिनु, प्रेम जो सबको मूल॥५५॥
कृष्ण प्रेम मातो रहे, घरे ना काहू शंक ।
तिन गंध कोपिन पे, जिन इन्द्र को रंक ॥५६॥
श्री वल्लभ वल्लभ जे कहे, रहत सदा मन तोष।
ताके पातक यो जरे, ज्यों सूरज ते ओस॥५७॥
श्री वल्लभ श्री वल्लभ भजे, सदा सोहिलो होय।
दुःख भाजे, दरिद्र टरे, बेरी न गाये कोय॥५८॥
श्री वल्लभ वर को छांडि के, भजे जो भैरव भूत।
अंत फजीती होयगी, ज्यों गणिका को पूत॥५९॥
वैष्णव की झोपडी भली, और देव को गाम।
आग लगे वा मेंड में, जहाँ न वल्लभ नाम॥६०॥
श्री वल्लभ पर रुचि नही, ना वैष्णव पर स्नेह।
ताको जनम वृथा भयो, ज्यों फागुन को मेह॥६१॥
मोमे तिल भर गुण नहे, तुम हो गुणन के जहाज।
रिज बुज चित्त राखियो, बान्ह गहे की लाज॥६२॥
तीन देव के भजन से, सिद्ध होत नहि काम ।
त्रिमाया को प्रलय कर, अह्रि मिलवे हरिनाम ॥६३॥
सुमरत जाय कलेश मिट, श्री वल्लभ निजनाम।
लीला लहर समुद्र में, भीजो आठों याम॥६४॥
तिनके पद युग कमल की, चरण रेणु सुखदाय ।
होय में धारण किये ते, सब चिन्ता मिट जाय ॥६५॥
श्री वल्लभ कुल बालक सबे, सबही एक स्वरूप।
छोटो बडो न जानियो, सबहिं अग्नि स्वरूप॥६६॥
मन नग ताको दीजिये, जो प्रेम पारखी होय।
नातर रहिये मौन गहि, वृथा न जीवन खोय॥६७॥
मन पंछी तब लगि उडे, विषय वासना माहि।
प्रेम बाज की झपट में, जब लग आयो नाहि॥६८॥
श्री वल्लभ मन को भामतो, मो मन रह्यो समाय।
ज्यों मेहंदी के पाट में, लाली लखी न जाय ॥६९॥
श्री वल्लभ विट्ठल रूप को, का करि सके विचार।
गूढ भाव यह स्वामिनी, प्रगट कृष्ण अवतार॥७०॥
श्री वृंदावन के दरस ते, भये जीव अनुकूल।
भवसागर अथाह जल, उतरन को यह तूल ॥७१॥
श्री वृंदावन बानिक बन्यो, कुंज कुंज अलि केलि।
आरही श्याम तमाल सों, मानो कंचन वेलि॥७२॥
श्री वृंदावन के वृक्ष को, मरम न जाने कोय।
एक पट को सुमिर के, आप चतुर्भुज होय॥७३॥
कोटि पाप छिन में तरे, लेहि वृंदावन नाम।
तीन लोक पर गाजिये, सुखनिधि गोकुल नाम॥७४॥
नन्द नंदन शिर राजही, बरसानो वृषभान।
दौउ मिल क्रीडा करत हु, इत गोपी उत कान्ह ॥७५॥
श्री यमुना जी सो नेह करि, यह नेमि तू लेह।
श्री वल्लभ के दास बिनु, ओरन सो तजि स्नेह॥७६॥
मन पंछी तन पंख कर, उड जाओ वह देश।
श्री गोकुल गाम सुहावनो, जहाँ गोकुल चन्द्र नरेश॥७७॥
मणि खंचित दोऊ कूल हैं, सीधी सुभग नग हीर।
श्री यमुना जी हरि भामति, धरे सुभग वपु नीर ॥७८॥
उभय फूल निज खंभ है, तरंग जु सिद्धि मान ।
श्री यमुना जगत वैकुंठ की, प्रगत नसाइन जान ॥७९॥
रतन खचित कंचन महा, श्री वृंदावन की भूमि।
कल्पवृक्ष से द्रुम रहे, फल फूलन करि झूमि ॥८०॥
धन्य धन्य श्री गिरिराज जु, हरिदासन में राय।
सानिध्य सेवा करत है, बल मोहन जिय भाय ॥८१॥
कोटि तरत अध रटत तें, मिटत सकल जंजाल।
प्रगट भये कलिकाल में, देव दमन नंदलाल॥८२॥
प्रौढ भाव गिरिवरधरन, श्री नवनीत दयाल।
श्री मथुरानाथ निकुंजपति, श्री विट्ठलेश सुख साल ॥८३॥
श्री द्वारकेश तदभाव में, गोकुलेश ब्रज भूप।
अद्भुत गोकुल चन्द्रमा, मन्मथ मोहन रूप॥८४॥
माट लिये माखन लिये, नूपुर बाजे पांव।
रिरुत्यात नटवरलाल जु, मुदित यशोदा माय ॥८५॥
झूलत पलना मोद में, श्री बालकॄष्ण रसरास।
तोडे शकट, रस बस किये, ब्रज युवतिन करि हास॥८६॥
श्री गिरिधर गोविन्द जू, बालकृष्ण गोकुलेश ।
रघुपति यदुपति घनश्याम जु, प्रगटे ब्रह्म विशेष ॥८७॥
परम सुखद अभिराम है, श्री गोकुल सुख धाम।
घुटुरुन खेलत फिरत है, श्री कमलनयन घनश्याम ॥८८॥
गोविन्द घाट सुहावनो, छोकर परम अनूप।
बैठक वल्लभ देव की, निज जन को फल रूप॥८९॥
बेलि लता बहु भांति की, द्रुमन रही लपटाय ।
मानो नायक नायिका, मिली मन ताजि आय॥९०॥
केकि शुक पिक द्रुम चढे, गुंजत है बहु भाय ।
रास केलि के आगमन, प्रमुदित मंगल गाय ॥९१॥
गोपि औपी जगत में, चालिके उलटी रीत ।
तिन के पद वंदन किये, बढत कृष्ण सौं प्रीत ॥९२॥
ठकुरानी घाट सुहावनो, छोकर परम अनूप।
दामोदर दास सेवा करे, जो ललिता रस रूप॥९३॥
कृष्णदास नंददास जु, सूर सु परमानंद।
कुंभन चतुर्भुजदास जु, छितस्वामी गोविंद ॥९४॥
श्री राधामाधो परम धन, शुक अरु व्यास लियो घूंट।
यह धन खर्चे घटत नही, चोर लेत ना लूट ॥९५॥
श्री वल्लभ रतन अमोल है, छुप कर दीजे ताल ।
तब अपना मन खोलिये, कूंची शब्द रसाल ॥९६॥
सबको प्रिय सबको सुखद, हरिआदिक सब धाम ।
व्रज लीला सव स्फुरत है, श्री वल्लभ सुमरत नाम ॥९७॥
चार वेद के पढे तें, जीत्यो जाय न कोय।
पुष्टिमार्ग सिद्धांत ते, विजय जगत में होय ॥९८॥
वृंदावन की माधुरी, नित नित नूतन रंग।
कृष्णदास क्यों पाइये, बिनु रसिकन के संग॥९९॥
जो गावे सीखे सुने, मन वच क्रम समेत।
’रसिकराय’ सुमिरो सदा, मन वांछित फल देत ॥१००॥
॥श्री हरिराय महाप्रभु रचित श्री वल्लभ साखी संपूर्ण ॥

आज तो छबीलो लाल...

आज तो छबीलो लाल, प्रात ही खेलन चल्यो,
सखा संग लाई लियें, प्रेम गारी गावे धाई के ।। ध्रु.।।

खेलत खेलत, वृषभानजू की  पोरी आये,
हो हो हो होरी बोले प्यारो मन भाई के ।। १ ।। प्रेम गारी..

छबीली रच्यो उपाय, श्याम को लीने बुलाय,
मैया की दृष्टी बचाये, लीने उर लाइ के ।

अरस परस दोउ, महारस भीने,
सहचरी सुख पावे, रसिक मुख गाई के ।। २ ।। प्रेम गारी...

आज तो छबीलो लाल, प्रात ही खेलन चल्यो

आज तो छबीलो लाल, प्रात ही खेलन चल्यो,
सखा संग लाई लियें, प्रेम गारी गावे धाई के ।। ध्रु.।।

खेलत खेलत, वृषभानजू की  पोरी आये,
हो हो हो होरी बोले प्यारो मन भाई के ।। १ ।। प्रेम गारी..

छबीली रच्यो उपाय, श्याम को लीने बुलाय,
मैया की दृष्टी बचाये, लीने उर लाइ के ।

अरस परस दोउ, महारस भीने,
सहचरी सुख पावे, रसिक मुख गाई के ।। २ ।। प्रेम गारी...

माई मेरौ मन मोह्यो सांवरे मोहि

माई मेरो मन मोह्यो, सांवरे मोहि, घर अंगना न सुहाई माई,अब हाँ हो माई ।
ज्यों  ज्यों  आँखिन   देखियै  मेरौ,   त्यों त्यों  जिय ललचाई माई ।। १ ।। मेरो मन...

हेली मनमोहन अति सोह्नौ ईत व्है निकस्यों आई माई, अब हाँ हो माई ।
मोहि   देखि   ठाडौ  भयौ   वह,   चितयौ   मुरि     मुसकाई    माई ।। २ ।। मेरो मन...

रूप ठगोरी डारि कैं चल्यौ, अंग छबि छैल दिखाई माई, अब हाँ हो माई ।
नैन   सैन   दे   साँवरौ   मन   लै    गयो   संग        लगाई     माई ।। ३ ।। मेरो मन...

लोक लाज कुल कांनि की  जिय कछू  न ठीक ठहराई माई, अब हाँ हो माई ।
कै लै चलि मोहि स्याम पै कै स्याम   ही   आनि     मिलाई   माई ।। ४ ।। मेरो मन...

प्रान प्रीति परबस  परे  अब, काहू की न बस्याई  माई, अब हाँ हो माई ।
रसिक   बाल   नंदलाल   पै   रसिक   सदां   बल       जाई   माई  ।। ५ ।। मेरो मन...

प्रीति बँधी श्री वल्लभ पद सों, और न मन में आवै हो

प्रीति  बँधी  श्री वल्लभ  पद सों,  और  न   मन   में आवै हो ।
पढि  पुरान  खट-दर्शन  नीके,   जो   कछु   कोऊ  बतावै हो ।। १ ।।
जब तें अंगीकार कियौ मेरो,    तब   तें  अन्य  न सुहावै हो ।
पाई महारस  कौन  मूढ़ मति, जित तित चित भटकावै हो ।। २ ।।
जाके भाग  फलें  या   कलि में,   सरन  सोई  जन  पावै हो ।
नंदनंदन को निज सेवक करि,  दृढ़  करि   बांह   गहावै हो ।। ३ ।।
जिन कोऊ करो भूल मन संशय, निश्चें करि श्रुति गावै हो ।
'रसिक'  सदा   फलरूप  मानिकें,  लै   उछंग  हुलरावै   हो ।। ४ ।।

श्री वल्लभ तजि अपुनो ठाकुर

श्री   वल्लभ   तजि अपुनो ठाकुर,   कहो   कौनपें  जैये  हो ।
सब   गुन  पूरन  करुना  सागर,   जहाँ  महारस   पैये   हो ।। १ ।।
सुरत ही देख  अनंग विमोहित, तन मन  प्रान  बिकैये  हो ।
परम उदार चतुर सुख सागर,   अपार  सदा  गुन  गैये   हो ।। २ ।।
सबहिनतें अति उत्तम जानियें,  चरनन   प्रीति   बढेये हो ।
कान न काहू की मन धरिये,   व्रत   अनन्य एक ग्रहिये हो ।। ३ ।।  
सुमिर सुमिर गुन रूप अनुपम, भाव दु:ख सबें बिसरैये हो ।
मुख बिधु लावन्य अमृत इक टक, पीवत नाहिं अघइये हो ।। ४ ।।
चरन कमल की निसदिन  सेवा,   अपने  ह्रदय   बसैये  हो ।
'रसिक' कहै संगीन सों भवो-भव,   इनके   दास  कहैये हो ।। ५ ।।

भूतल महा महोत्सव आज...

भूतल  महा  महोत्सव  आज  ।
श्री लक्ष्मण गृह प्रकट भये हैं,  श्री   वल्लभ   महाराज  ।। १ ।।
आज्ञा  दई  दया  कर  श्री हरी,   पुष्टि   प्रकटवे   काज  ।
कलिमें   जन्म  उबार्यो  ततछिन,   बूडत  वेद  जहाज  ।। २ ।।
आनंद  मूरति निरखत  नयनन,  फूले  भक्त  समाज  ।
नाचत गावत विवश भये सब, छांड लोक  कूल  लाज  ।। ३ ।।
घर घर मंगल बजत बधाई,   सजत   नये   नये साज  ।
मगन भये तन गिनत न  काहू,  तिन  लोक पर गाज  ।। ४ ।। 
लीलासिंधु    महारस    अबतें,   बंधी    प्रेमकी   पाज  ।
रसिक शिरोमणि सदा विराजो, श्री वल्लभ शिरताज  ।। ५ ।।

प्रकटे पुष्टि महारस देन...

श्री महाप्रभुजी की वधाई

प्रकटे पुष्टि महारस देन ।
श्री वल्लभ हरि भाव अति मुख,  रूप  समर्पित  लेन ।। १ ।।
नित्य संबंध कराय भाव  दे,   विरह  अलौकिक  वेन ।
यह प्राकट्य रहत ह्रदय में, तीनलोक भेदन कों जेन ।। २ ।।
रहियें ध्यान सदा ईनके  पद,   पातक  कोऊ  लगे न ।
रसिक यह निरधार निगम गति,  साधन और नहेन ।। ३ ।।

बसो मेरे नयनन में दोउं चंद...

बसो मेरे नयनन में दोउं  चंद ।
गौर वरण  वृषभाननंदिनी,  श्याम  वरण   नंदनंद  ।। १ ।।
कुंज निकुंज में विहरत दोउं, अतिसुख आनंद कंद ।
रसिक प्रीतम प्रिया रसमें  माते,  परो प्रेम के  फंद ।। २ ।।

ज्येष्ठ मास तपत धाम

ज्येष्ठ मास  तपत  धाम,  कहांकुं  सिधारो लाल ,   ऐसी  कौन  चतुर नार,  वाको  बीरा  लीनों ।
नेंक  तो  कृपा  कीजे,   हमहुं को  दरश  दीजे,    जाईये  फिर वाके   धाम,    जासुं  नेह नवीनों  ।। 1 ।।
बांह  पकर  भवन  लाई,  शय्या   पर  दिये  बेठाई,   अरगजा  लगाय अंग,  हियो  शीतल  कीनो ।
रसिक  प्रितम  कंठ  लाय  लीनों, रससों  मिलाय,  अरस  परस  केलि  करत, प्रीतम  बस  कीनों  ।। 2 ।।

झूलत तेरे नयन हिंडोरे

झूलत तेरे नयन हिंडोरे,झूलत तेरे नयन हिंडोरे ।
श्रवण खंभ, भ्रुभई मयार, दृष्टि करण, डांडी चहूँ ओरें ।। 1 ।।

पटली अधर, कपोल सिंहासन, बैठें युगल रूप रति जोरें ।
कचघन आड़, दामिनी दमकत मानों, इन्द्रधनुष अनुहोरें ।। 2 ।।

दूर देखत, अलकावललि अलिकुल, लेत सुगंधन, पवन झकोरें ।
बरणी चमर, ढूरत चहूँ दिशतें, लर लटकन, फूंदना चितचोरें ।। 3 ।।

थकित भये, मंडल युवतिनके, युग ताटंक लाज, मुख मोरें ।
रसिकप्रितम, रसभावसों झूलावत, रिमझिम रिमझिम, डारत तृण तोरें ।। 4 ।।

सब सखी कसुंबा छठ ही मनावो

सब सखी कसुंबा छठ ही मनावो ।
अपने अपने भवन भवनमें, लाल ही लाल बनावो ।। 1 ।।
बिविध सुगंध उबटनों लेकें, लालन उबट न्हवावो ।
उपरना लाल कसुंबी कुल्हे, आभूषन लाल धरावो ।। 2 ।।
 यह छबि निरख निरख व्रजसुन्दरि, मन मन मोद बढ़ावें ।
लाल लकुटी कर मुरली बजावे, रसिक सदा गुन गावे ।। 3

गावत मल्हार पिय आये मेरे आंगन कहा

गावत मल्हार पिय आये मेरे आंगन कहा नौछावर करूँ यही ओसर ।
तन मन प्रान एक रोम पर वार डारुं तोऊ न करत या कृपा की सरवर ।। 1 ।।

सुफल करी आज रेन किये अब सुख सेन मुख हू न आवे बेन उमग चल्यो हियो भर ।
रसिक प्रीतम प्रेम विवास भये श्री वल्लभ प्रभु रसिक पुरंदर ।। 2 ।।

हों वारी इन वल्लभीयन पर

हों वारी इन वल्लभीयन पर।
मेरे तन कौ करौं बिछौना, सीस धरो इनके चरनन पर।
भावभरी देखो इन अँखियन, मंडल मध्य विराजत गिरिधर ।
वे तो मेरे प्राण-जीवन-धन दान दिए रे श्री वल्लभ वर ॥
पुष्टीमार्ग प्रकट करिबें कौ प्रगटे श्री विट्ठल द्विजवपुधर ।
दास रसिक जु बलैयां लैं लैं, बल्लभियन कि चरण-रज अनुसर ॥

१ - पिय संग रंग भरि करि किलोलें

पिय संग रंग भरि करि किलोलें ।
सबन कों सुख देन पिय संग करत सेन,चित्त में परत चेन जब हीं बोलें ॥१॥
अति हि विख्यात सब बात इनके हाथ, नाम लेत कृपा करें अतोलें ।
दरस करि परस करि ध्यान हिय में धरें,सदा ब्रजनाथ इन संग डोलें ॥२॥
अतिहि सुख करन दुख सबके हरन,एही लीनो परन दे झकोले ।
ऐसी यमुने जान तुम करो गुनगान,रसिक प्रियतम पाये नग अमोले ॥३॥

Priyasang rangbari kari kalole, 
Sabanko sukhden, piyasadakkarat sen, chit me tub parat chain, jab hi bole, 
Atihi vikhiyaat, sab baat inke haat, naam lat krupakare atole, 
Daraskari paraskari dhyaan hiya mein darey, sada brijnath in sadak dole.
Atihi sukhkaran, dukh saban ke haran, ahee lino paran de jhakole 
Aisi yamune jaan tum karo gungaan, rasik priyatam paye nag amole.

२ - श्याम सुखधाम जहाँ नाम इनके

श्याम सुखधाम जहाँ नाम इनके ।
निशदिना प्राणपति आय हिय में बसे, जोई गावे सुजश भाग्य तिनके ॥१॥
येही जग में सार कहत बारंबार, सबन के आधार धन निर्धन के ।
लेत श्री यमुने नाम देत अभय पद दान, रसिक प्रीतम प्रिया बसजु इनके ॥२॥

Shyam sukhdham jahan naam inke, 
Nishdhin pranpati aye hiya mein base, johi gaawhe sujus bhagya tinke.
Yehi jag mein saar, kahat barambaar, saban ke aadhar dhan nirdhan ke lat shriyamune naam, det abhay pad dhan, rasik pritam priya basju inke.

३ - कहत श्रुतिसार निर्धार करिकें

कहत श्रुतिसार निर्धार करिकें ।
इन बिना कौन ऐसी करे हे सखी, हरत दुख द्वन्द सुखकंद बरखें ॥१॥
ब्रह्मसंबंध जब होत या जीव को, तबहि इनकी भुजा वाम फरकें ।
दौरिकरि सौरकर जाय पियसों कहे, अतिहि आनंद मन में जु हरखें ॥२॥
नाम निर्मोल नगले कोउ ना सके, भक्त राखत हिये हार करिकें ।
रसिक प्रीतम जु की होत जा पर कृपा, सोइ श्री यमुना जी को रूप परखें ॥३॥

Kahat shrutisaar nirdhar karike, 
In bina kaun aisi kare he sakhi, harat dukh dundh sukhkand barkhe.
Brahmasambandh jab hot ya jeev ko, tabhi inki buja baam farke, dorikari shorkar jaaye piyaso kahe, atihi anand manmeinju harke.
Naam nirmol nag le koho na sake, bhakt rakhat hiya haar karike,
Rasik Pritamjuki jot japar kripa, sohi ShriYamunaji ko rup parkhe.