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राग जलधर केदारा
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जा दिन तें निरख्यौ नंद-नंदन
जा दिन तें निरख्यौ नंद-नंदन, कानि तजि घर बंधन छूट्यो ।
चारू बिलोकनि की निसी मार, संभार गयी मन मारने लूट्यो ।। १ ।।
सागर कौ सरिता जिमि धावति रोकी रहे कुल कौ पुल टूट्यो ।
मत्त भयो मन संग फिरै, रसखानि सुरूप सुधा-रस घूट्यो।। २ ।।
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