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गावत मल्हार पिय आये मेरे आंगन

गावत मल्हार पिय आये मेरे आंगन कहा नौछावर करूँ यही ओसर ।
तन मन प्रान एक रोम पर वार डारुं तोऊ न करत या कृपा की सरवर ।। १ ।।

सुफल करी आज रेन किये अब सुख सेन मुख हू न आवे बेन उमग चल्यो हियो भर ।
रसिक प्रीतम प्रेम विवास भये श्री वल्लभ प्रभु रसिक पुरंदर ।। २ ।।

जुलन के दीन आये

जुलन के दीन आये,
हिंडोरे माई जूलन के दीन आये।
गरजत गगन, दामिनी कोंधत,
राग मल्हार जमाये ॥१॥

कंचन खंभ सुढार बनाए,
बीचबीच हीरा लाए ।
डांडी चार सुदेश सुहाई,
चोकी हेम जराये ॥२॥

नाना विधिके कुसुम मनोहर,
मोतीन जुमक छाए ।
मधुर मधुर ध्वनि वेणु बजावत,
दादुर मोर जिवाये ॥३॥

रमकन जमकन पियप्यारीकी,
किंकिणी शब्द सुहाये ।
चतुर्भुजप्रभु गिरिधरनलाल संग,
मानिनी मंगल गाये ॥४॥

वर्षा की अगवानी , आये माई वर्षा की अगवानी

वर्षा की अगवानी , आये माई वर्षा की अगवानी।
दादुर मोर पपैया बोले, कुंजन बग्पांत उडानी ॥१॥

घनकी गरज सुन, सुधी ना रही कछु,
बदरन देख डरानी ।
कुम्भनदास प्रभु गोवर्धनधर,
लाल
भये सुखदानी ॥२॥

हरियारो सावन आयो

हरियारो सावन आयो,
देखो माई, हरियारो सावन आयो।
हर्यो टिपारो शीश बिराजत,
काछ हरी मन भायो॥१॥

हरी मुरली है, हरी संग राधे,
हरी भूमि सुखदाई।
हरी हरी वन राजत द्रुमवेली,
न्रुत्यत कुंवर कन्हाई॥२॥

हरी हरी सारी सखीजन पहरे,
चोली हरिरंग भीनी।
रसिक प्रीतम मन हरित भयो है,
सर्वस्व न्योछावर कीनी॥३॥

ये बड़भागी मोर

ये बड़भागी मोर,
देखो माई, ये बड़भागी मोर।
जीनकी पंखको मुकुट बनत है,
सीर धरे नंदकिशोर ॥१॥

ये बड़भागी नन्द जशोदा,
पुण्य किये भरी जोर ।
वृन्दावन हम क्यों ना भये,
लागत पग की कोर ॥२॥

ब्रह्मादिक सनकादिक नारद,
ठाडे है कर जोर ।
सूरदास संतनको सरवस,
देखियत माखनचोर ॥३॥

गोवर्धन पर मुरवा

गोवर्धन पर मुरवा,
बोले माई, गोवर्धन पर मुरवा,
तेसिये श्यामघन मुरिली बजाई,
तेसेही उठे झुक धुरवा ।१।

बड़ी बड़ी बूंदन बर्खन लाग्यो,
पवन चलत अति जुरवा,
सूरदासप्रभु तिहारे मिलन को,
निस जागत भयो भुरवा ॥२॥

सुंदर बदनरी सुख सदन श्याम को

रथयात्रा के पद : व्रतोत्सव भावना

श्री गुसाईंजी वि. सं. 1616 को महासुद 13 के दिन जगदीश पधारें. वहां आप छ माह बिराजें. रथयात्रा का उत्सव उन्होंने वहीँ किया था. उसी समय भगवान जगदीश ने  पुष्टिमार्ग में रथयात्रा का उत्सव आरंभ करने की आज्ञा दी थी. उसी समय पीपली गाँव के माधवदास आपश्री के साथ थे. उन्होंने रथ की भावना के अनुसार पद गाया : "जय श्री जगन्नाथ हरि देवा ". इस पद को सून कर श्री गुंसाईजी प्रसन्न हुए और रथयात्रा के उत्सव में प्राथमिक पद के स्वरूपमें इस को अग्रस्थान दिया. और सूरदासजी के दो भावात्मक पदों 1. "वा पटपीत की फहेरान " 2. "सुंदर बदनरी सुख सदन श्याम को "भी स्थान दिया.

जब श्री गुंसाईजी अड़ेल पधारें तब रासा नामक सुथार के पास रथ सिद्ध कराके उसमें श्री नवनीतप्रिय प्रभु को पधराके रथयात्रा का उत्सव आषाढ़ सूद बीजको पुष्य नक्षत्र के समय को आरम्भ किया है.

सुंदर बदनरी सुख सदन श्याम को, निरख नैन मन थाक्यो  ।
हो ठाडी  विथन   व्हे  निकस्यो,  ऊझकि  झरोका  झांक्यो ।। 1 ।।
लालन एक चतुराई कीनी,   गेंद उछार गगन मिस ताक्यो ।
बेरिन   लाज    भईरी   मोकों,   में  गंवार   मुख   ढान्क्यो ।। 2 ।।
चितबन में कछु कर गयो मोतन, चढ्यो रहत चित चाक्यो ।
सूरदास   प्रभु   सर्वस्व   लेकें,  हंसत   हंसत   रथ   हांक्यो ।। 3 ।।

वा पट पीत की फहेरान

रथयात्रा के पद : व्रतोत्सव भावना

श्री गुसाईंजी वि. सं. 1616 को महासुद 13 के दिन जगदीश पधारें. वहां आप छ माह बिराजें. रथयात्रा का उत्सव उन्होंने वहीँ किया था. उसी समय भगवान जगदीश ने  पुष्टिमार्ग में रथयात्रा का उत्सव आरंभ करने की आज्ञा दी थी. उसी समय पीपली गाँव के माधवदास आपश्री के साथ थे. उन्होंने रथ की भावना के अनुसार पद गाया : "जय श्री जगन्नाथ हरि देवा ". इस पद को सून कर श्री गुंसाईजी प्रसन्न हुए और रथयात्रा के उत्सव में प्राथमिक पद के स्वरूपमें इस को अग्रस्थान दिया. और सूरदासजी के दो भावात्मक पदों 1. "वा पटपीत की फहेरान " 2. "सुंदर बदनरी सुख सदन श्याम को "भी स्थान दिया.

जब श्री गुंसाईजी अड़ेल पधारें तब रासा नामक सुथार के पास रथ सिद्ध कराके उसमें श्री नवनीतप्रिय प्रभु को  पधराके रथयात्रा का उत्सव आषाढ़ सूद बीजको पुष्य नक्षत्र के समय को आरम्भ किया है.

वा  पट पीत की  फहेरान  ।
कर गहि चक्र चरण की धावन, नहि विसरत वह बान ।। 1 ।।
रथतें उतर  अवनि  आतुरव्है,   कचरज की   लपटान ।
मानों  सिंह  शैलतें  उतर्यो,    महामत्त   गज   जान ।। 2 ।।
धन्य   गोपाल   मेरो प्रण राख्यो,   मेट वेद की कान ।
सोई अब सूर सहाय  हमारें,   प्रकट  भये  हरि  आन  ।। 3 ।।

जय श्री जगन्नाथ हरि देवा

रथयात्रा के पद : व्रतोत्सव भावना

श्री गुसाईंजी वि. सं. 1616 को महासुद 13 के दिन जगदीश पधारें. वहां आप छ माह बिराजें. रथयात्रा का उत्सव उन्होंने वहीँ किया था. उसी समय भगवान जगदीश ने  पुष्टिमार्ग में रथयात्रा का उत्सव आरंभ करने की आज्ञा दी थी. उसी समय पीपली गाँव के माधवदास आपश्री के साथ थे. उन्होंने रथ की भावना के अनुसार पद गाया : "जय श्री जगन्नाथ हरि देवा ". इस पद को सून कर श्री गुंसाईजी प्रसन्न हुए और रथयात्रा के उत्सव में प्राथमिक पद के स्वरूपमें इस को अग्रस्थान दिया. और सूरदासजी के दो भावात्मक पदों 1. "वा पटपीत की फहेरान " 2. "सुंदर बदनरी सुख सदन श्याम को "भी स्थान दिया.

जब श्री गुंसाईजी अड़ेल पधारें तब रासा नामक सुथार के पास रथ सिद्ध कराके उसमें श्री नवनीतप्रिय प्रभु को  पधराके रथयात्रा का उत्सव आषाढ़ सूद बीजको पुष्य नक्षत्र के समय को आरम्भ किया है.

जय श्री जगन्नाथ हरि देवा ।
रथ बैठे प्रभु अधिक बिराजत, जगत करत सब सेवा  ।। 1 ।।
सनक सनंदन ओर ब्रह्मादिक,  इन्द्रादिक जुर आये  ।
अपनी अपनी  भेट सबे ले,   गगन  विमानन  छाये  ।। 2 ।।
रत्नजटित रथ नीको लागत,  चंचल  अश्व  लगाये ।
नरनारी  आनंद  भये  अति,  प्रमुदित  मंगल  गायें  ।। 3 ।।
गारी देत दिवावत अपनपे, यह विधि रथहिं चलाये  ।
रामराय  श्री  गोवर्धनवासी,    नगर  उड़ीसा   आये  ।। 4 ।।

देखो माई सुन्दरता को रास

देखो माई सुन्दरता को रास ।
अति प्रवीण वृषभान  नंदिनी,   निरख  बंधे   दृगपास  ।। 1 ।।
अंग अंग प्रति  अमित माधुरी,   भृकुटी मदन विलास  ।
जबतें दृष्टि परी  सुन्दर  मुख,   वश  कीने  अनायास  ।। 2 ।।
प्रथम समागम कों सुन सजनी, उपजत है अति त्रास  ।
अब तो मन वच क्रम सब दीनों,  यह सुन  सूरजदास  ।। 3 ।।

मोहिं सों निठुराई ठानी ही

मोहिं सों निठुराई ठानी ही, मोहन प्यारे काहे कों आवन कह्यों, सांचे हो जू सांचे ।
प्रीत के बचन वाचे, बिरहानल आंचे, अपनी गरज को तुम, इक पाई नाँचे ।। 1 ।।

भले हो जू जानें लाल, अरगजा भींनी माल, केसरि तिलक भाल, मेंन मंत्र काचें ।
निसि के चिन्ह चिन्हे, सूर स्याम रति भींने, ताहि के सिधारौ पिय, जाके रंग राचे ।। 2 ।।

जसुमति लालको बदन दिखैयें

जसुमति लालको बदन दिखैयें ।
भोर उठत आय देखत मुख, निरखत ही सचु पैयें ।। 1 ।।
उमड़ रही घटा चहुँ दिशतें, बेग तुरत उठ घैयें ।
परमानंद प्रभु उठे तुरत ही, निरख मुखारविंद बलजैयें ।। 2 ।।

सब सखी कसुंबा छठ ही मनावो

सब सखी कसुंबा छठ ही मनावो ।
अपने अपने भवन भवनमें, लाल ही लाल बनावो ।। 1 ।।
बिविध सुगंध उबटनों लेकें, लालन उबट न्हवावो ।
उपरना लाल कसुंबी कुल्हे, आभूषन लाल धरावो ।। 2 ।।
 यह छबि निरख निरख व्रजसुन्दरि, मन मन मोद बढ़ावें ।
लाल लकुटी कर मुरली बजावे, रसिक सदा गुन गावे ।। 3

जो सुख होत गोपालें गायें

जो सुख होत गोपालें गायें ।
सो न होत जपतप व्रत संयम, कोटिक तीरथ न्हायें ।। 1 ।।
गदगद गिरा लोचन जलधारा, प्रेमपुलक तनुछायें ।
तिनलोक सुख तृणवत लेखत, नंदनंदन उर आयें ।। 2 ।।
दियें नहीं लेत चार पदारथ, श्रीहरिचरण अरूझायें ।
सूरदास गोविंद भजनबिन, चित नहीं चलत चलायें ।। 3 ।।

भज सखी हरि गोवर्धन रानो


भज सखी हरि गोवर्धन रानो ।
तुलसी वल्लभ कमला वल्लभ, राधा वल्लभ बानो ।। 1 ।।
जाके तेज प्रताप रूप बल, नहीं उपमा को आनो ।
प्रतिदिन तरुण लावण्य सागर में, लजि बूडत शशि भानो ।। 2 ।।
गोपीनाथ सुयश रसलंपट, मधुप करत गुणगानो ।
ताकी ओट रटत कृष्णदास, सखी चातक अंबुद मानो ।। 3 ।।

श्याम घन कारे कारे, बादर ऋतु पावस हैं कारे

श्याम घन कारे कारे, बादर ऋतु पावस हैं कारे ।
कारी कोयल वन वन बोलत, मोर करा हिलकारे ।। 1 ।।
कारे धुरवा धार छूटत हैं, कारे कारे काजर भारे ।
कारे मदन सदन सूरज प्रभु, कारे चीर संभारे ।। 2 ।।

देखो माई सुन्दरता को रास

देखो माई सुन्दरता को रास ।
अति प्रवीण वृषभान नंदिनी, निरख बंधे दृगपास ।। 1 ।।
अंग अंग प्रति अमित माधुरी, भृकुटी मदन विलास ।
जबतें दृष्टि परी सुन्दर मुख, वश कीने अनायास ।। 2 ।।
प्रथम समागम कों सुन सजनी, उपजत है अति त्रास ।
अब तो मन वच क्रम सब दीनों, यह सुन सूरजदास ।। 3 ।।

झूलत सुरंग हिंडोरें राधामोहन

झूलत सुरंग हिंडोरें राधामोहन ।
वरण वरण चूनरी पेहेरें, व्रजवधू चहूँ ओरें ।। 1 ।।
राग मल्हार अलापत सप्तसुरन, तीन ग्राम जोरें ।
मदनमोहनजूकी या छबि ऊपर, गोविंद बल तृण तोरें ।। 2 ।

भोजन करत नंदलाल, संग लिये व्रजबाल

भोजन करत नंदलाल, संग लिये व्रजबाल,
बैठे हैं कालिंदी कुल, चंचल नैन बिसाल ।
छाक भरि लाई थाल, परसपर करत ख्याल,
हंसी हंसी चुंबत गाल, बोलत बचन रसाल ।। 1 ।।
आसपास बैठे, वाम मधि मोहे, घनश्याम जैंवत,
सुख के धाम, रस भरे रसिक लाल ।
विमल चरित करत गान, आज्ञा भई कुंवर कान्ह,
दास कुंभन गावत राग मलार, निरखि भये निहाल ।। 2 ।।


हिन्डोरेमाई झूलन के दिन आये

हिन्डोरेमाई झूलन के दिन आये ।
गरजत गगन दामिनी कोंधत, राग मल्हार जमाये ।। १ ।।
कंचनखंभ सुढार बनाये, बीच बीच हीरा लाये ।
डांडी चार सुदेश सुहाईं, चौकी हेम जराये ।। २ ।।
नानाविधके कुसुम मनोहर, मोतिन झूमक छाये ।
मधुर मधुर ध्वनि वेणु बजावत, दादुर मोर जिवाये ।।
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रमकन झमकन पियप्यारीकी, किंकिणी शब्द सुहाये ।
चतुर्भुज प्रभु गिरिधरनलाल संग, मानिनी मंगल गायें ।।
।।