नत्वा हरिं सदानन्दं सर्व सिद्धान्त संग्रहम ।
बालप्रबोधनार्थाय वदामि सुविनिश्चितम ॥१॥
धर्मार्थकाममोक्षाख्यास्च त्वारोsर्था मनीषिणाम ।
जीवेश्वर विचारेण द्विधा ते हि निरूपिताः ॥२॥
अलौकिकास्तु वेदोक्ताः साध्य साधन संयुता ।
लौकिकाऋषिभिः प्रोक्ताअं स्तथैवैश्वरशिक्षया ॥३॥
लौकिकांस्तु प्रवक्ष्यामि वेदादाद्या यतः स्थिता:।
धर्मशास्त्राणि नीतिश्च कामशास्त्राणि च क्रमात ॥४॥
त्रिवर्ग साधका नीति न तन्निर्णय उच्यते।
मोक्षे चत्वारि शास्त्राणि लौकिके परतः स्वतः ॥५॥
द्विधा द्वे द्वे स्वतस्त्र सांख्य योगौ प्रकीर्तितौ ।
त्यागा त्याग विभागेन सांख्ये त्यागः प्रकीर्तितः ॥६॥
अहन्ताममतानाशे सर्वथा निरहं कृतौ ।
स्वरूपस्थो यदा जीवः कृतार्थः स निगद्यते ॥७॥
तदर्थ प्रक्रिया काचित्पुराणेSपि निरूपिता ।
ऋषिभिर्बहुधा प्रोक्ता फ़लमेकमबाह्मतः ॥८॥
अत्यागे योगमार्गो हि त्यागोSपि मनसैव हि ।
यमादयस्तु कर्त्तव्याः सिद्धे योगे कृतार्थता ॥९॥
पराश्रयेण मोक्षस्तु द्विधा सोSपि निरूप्यते ।
ब्रह्म ब्राह्मणतां यातः तद्रूपेण सुसेव्यते ॥१०॥
ते सर्वथा न चाद्येन शास्त्रं किन्चिदुरीरितम ।
अतं शिवश्च विष्णुश्च जगतो हितकारकौ
वस्तुनः स्थिति संहारकार्यौ शास्त्र प्रवर्त्तकौ ॥११॥
ब्रह्मौव ताह्शं यस्मात्सर्वात्मकतयोदितौ ।
नर्दोषपूर्ण गुणता तत्तच्छास्त्रे तयोः कृता ॥१२॥
भोगमोक्षफले दातुं शक्तौ द्वावपि यद्यपि।
भोगः शिवेन मोक्षस्तु विष्णुनेति विनिश्चयः ॥१३॥
लोकेsपि यत्प्रभुर्भुंग्क्ते तन्न यच्छति कहिर्चित ।
अतिप्रियाय तदपि दीयते व्कचिदेव हि ॥१४॥
नियतार्थप्रदानेन तदीयत्वं तदाश्रयः ।
प्रत्येकं साधनं चैतद द्वितीयार्थे महाछ्र्मः ॥१५॥
जीवा स्वाभावतो दुष्टा दोषाभावाय सर्वदा ।
श्रवणादि ततः प्रेम्णा सर्वं कार्य हि सिद्दयति ॥१६॥
मोक्षस्तु विष्णोः सुलभो भोगश्च शिवतस्तथा ।
समर्पणेनात्मनो हि तदीयत्वं भवेदध्रुवम ॥१७॥
अतदीय तयाचापि केवलश्चेत समाश्रितः ।
तदाश्रयतदीयत्व बुद्धयै किंचित्समाचरेत ॥१८॥
स्वधर्ममनुतिष्ठन्वै भारद्वैगुण्य मन्यथा ।
इत्येवं कथितं सर्व नैताज्ज्ञाने भ्रमः पुनः ॥१९॥
॥इति श्रीवल्लभाचार्य विरचितो बालप्रबोधः सम्पूर्णः॥
Bowing down to ever blissful Shri Hari, I now tell you the definite essence of all doctrines for understanding of seekers.॥1॥
बालप्रबोधनार्थाय वदामि सुविनिश्चितम ॥१॥
धर्मार्थकाममोक्षाख्यास्च त्वारोsर्था मनीषिणाम ।
जीवेश्वर विचारेण द्विधा ते हि निरूपिताः ॥२॥
अलौकिकास्तु वेदोक्ताः साध्य साधन संयुता ।
लौकिकाऋषिभिः प्रोक्ताअं स्तथैवैश्वरशिक्षया ॥३॥
लौकिकांस्तु प्रवक्ष्यामि वेदादाद्या यतः स्थिता:।
धर्मशास्त्राणि नीतिश्च कामशास्त्राणि च क्रमात ॥४॥
त्रिवर्ग साधका नीति न तन्निर्णय उच्यते।
मोक्षे चत्वारि शास्त्राणि लौकिके परतः स्वतः ॥५॥
द्विधा द्वे द्वे स्वतस्त्र सांख्य योगौ प्रकीर्तितौ ।
त्यागा त्याग विभागेन सांख्ये त्यागः प्रकीर्तितः ॥६॥
अहन्ताममतानाशे सर्वथा निरहं कृतौ ।
स्वरूपस्थो यदा जीवः कृतार्थः स निगद्यते ॥७॥
तदर्थ प्रक्रिया काचित्पुराणेSपि निरूपिता ।
ऋषिभिर्बहुधा प्रोक्ता फ़लमेकमबाह्मतः ॥८॥
अत्यागे योगमार्गो हि त्यागोSपि मनसैव हि ।
यमादयस्तु कर्त्तव्याः सिद्धे योगे कृतार्थता ॥९॥
पराश्रयेण मोक्षस्तु द्विधा सोSपि निरूप्यते ।
ब्रह्म ब्राह्मणतां यातः तद्रूपेण सुसेव्यते ॥१०॥
ते सर्वथा न चाद्येन शास्त्रं किन्चिदुरीरितम ।
अतं शिवश्च विष्णुश्च जगतो हितकारकौ
वस्तुनः स्थिति संहारकार्यौ शास्त्र प्रवर्त्तकौ ॥११॥
ब्रह्मौव ताह्शं यस्मात्सर्वात्मकतयोदितौ ।
नर्दोषपूर्ण गुणता तत्तच्छास्त्रे तयोः कृता ॥१२॥
भोगमोक्षफले दातुं शक्तौ द्वावपि यद्यपि।
भोगः शिवेन मोक्षस्तु विष्णुनेति विनिश्चयः ॥१३॥
लोकेsपि यत्प्रभुर्भुंग्क्ते तन्न यच्छति कहिर्चित ।
अतिप्रियाय तदपि दीयते व्कचिदेव हि ॥१४॥
नियतार्थप्रदानेन तदीयत्वं तदाश्रयः ।
प्रत्येकं साधनं चैतद द्वितीयार्थे महाछ्र्मः ॥१५॥
जीवा स्वाभावतो दुष्टा दोषाभावाय सर्वदा ।
श्रवणादि ततः प्रेम्णा सर्वं कार्य हि सिद्दयति ॥१६॥
मोक्षस्तु विष्णोः सुलभो भोगश्च शिवतस्तथा ।
समर्पणेनात्मनो हि तदीयत्वं भवेदध्रुवम ॥१७॥
अतदीय तयाचापि केवलश्चेत समाश्रितः ।
तदाश्रयतदीयत्व बुद्धयै किंचित्समाचरेत ॥१८॥
स्वधर्ममनुतिष्ठन्वै भारद्वैगुण्य मन्यथा ।
इत्येवं कथितं सर्व नैताज्ज्ञाने भ्रमः पुनः ॥१९॥
॥इति श्रीवल्लभाचार्य विरचितो बालप्रबोधः सम्पूर्णः॥
भावानुवाद- Translation
भावानुवाद- Translation
सदा आनंद रूप श्रीहरि को नमस्कार करके, सब सिद्धांतों के सुनिश्चित सार-संग्रह को साधकों की जानकारी के लिए बताता हूँ ॥१॥
Bowing down to ever blissful Shri Hari, I now tell you the definite essence of all doctrines for understanding of seekers.॥1॥
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, मनन करने वाले मनुष्यों के लिए चार पुरुषार्थ कहे गए हैं। जीवत्व और ईश्वरत्व देने वाले इन पुरुषार्थों का दो प्रकार से वर्णन किया गया है॥२॥
There are four goals for thoughtful human beings:
Righteousness, wealth, desire fulfillment and salvation.These are described in
two ways, based on their outcome - Jeeva and God.॥2॥
अलौकिक पुरुषार्थ तो वेदों के अनुसार साध्य और साधन से युक्त हैं और लौकिक पुरुषार्थ ऋषियों द्वारा ईश्वर की शिक्षा के अनुसार कहे गए हैं॥३॥
Divine goals are to be achieved as per the means and
aims described in Vedas and worldly goals are described by the sages as taught
to them by Lord Krishna.॥3॥
लौकिक पुरुषार्थों को बताता हूँ जो वेदों के प्रारंभ में स्थित हैं, वे क्रमशः धर्म, नीति और काम शास्त्र हैं॥४॥
Worldly goals are righteousness, ethics and desire
fulfillment, respectively. These consist of the initial part of the
Vedas.॥4॥
साधक केवल इन त्रिवर्ग का ही पालन न करें, ऐसा निर्णय कहा जाता है। मोक्ष के चार शास्त्र (मार्ग) हैं जिसमें से दो लौकिक हैं॥५॥
Seeks should not strive for these three goals only,
this is the decision. There are four types of scriptures on attaining salvation
of which two are worldly.॥5॥
सांख्य और योग को दो प्रकार से दो भागों में बांटा गया है - स्वाश्रय और पराश्रय से तथा त्याग और अत्याग के अनुसार। सांख्य में त्याग का महत्त्व कहा गया है॥६॥
Sankhya and Yoga are divided into two parts in two
ways: based on self effort and other's help & based on renunciation and
non-renunciation. Renunciation is held in high regards in Sankhya.॥6॥
अहंता, ममता का नाश करके जब जीव सब प्रकार से अहंकार मुक्त होकर स्वरुप में स्थित हो जाता है तब उसको कृतार्थ कहा जाता है॥७॥
Devoid of body consciousness and mental attachments,
when Jeeva gets established in Self without any ego whatsoever, he is said to
have achieved his goal of salvation.॥7॥
इसकी प्रक्रिया का वर्णन कुछ पुराणों में भी किया गया है और ऋषियों ने भी इसको बहुत प्रकार से कहा है, आतंरिक रूप से इनका सबका फल समान है॥८॥
This has been described in some Puranas also and
sages have also illustrated it in many ways.The internal result is the same in
all methods.॥8॥
अत्याग रूपी योग मार्ग में मन से सभी वस्तुओं का त्याग किया जाता है, यम आदि नियमों का पालन करते हुए योग में सिद्धि रूपी कृतार्थता प्राप्त होती है॥९॥
Even in Yoga through non-renunciation, mental
renunciation of everything is a must. Abiding by self-control and other
disciplines one attains salvation.॥9॥
पराश्रय से मोक्ष प्राप्ति दो प्रकार से होती है, अब उसका वर्णन किया जाता है - ब्रहम ही ब्रह्मा हुआ है, अतः उसकी उस रूप में उपासना की जाती है॥१०॥
Salvation
depending on others is of two types which is now described. Supreme
Brhama (Shri Krishna) himself has manifested into Shri Brhmaa ji, so He is
worshipped in that form.॥10॥
वर्तमान शास्त्रों में उसका कुछ भी वर्णन नहीं मिलता है, अतः जगत के हितकारक श्री शिव और श्री विष्णु की उपासना की जाती है ॥११॥
But current scriptures do not detail about it at all
so Shri Shiva and Shri Vishnu, who are benevolent to this world, are
worshipped.॥11॥
इस जगत की स्थिति और विनाश का कार्य करने वाले और अपने-अपने शास्त्रों का प्रवर्तन करने वाले उन दोनों के रूप में सर्वात्मक ब्रह्म ही प्रकट हुए हैं॥१२॥
All pervading, Supreme Brahma manifested himself
into them as the maintainer and destroyer of this world. So, they propagate
their respective scriptures of salvation posing themselves as supreme Brahma.॥12॥
उन शास्त्रों में उनकी दोष रहित और सर्वगुण संपन्नता का वर्णन किया गया है, दोनों ही मोक्ष और भोग दोनों ही देने में समर्थ हैं परन्तु॥१३॥
Those scriptures describe them as devoid of all
impurities and possessing all divine attributes . Both of them are capable of
giving worldly pleasure and salvation, but ॥13॥
भोग के लिए श्रीशिव और मोक्ष के लिए श्रीविष्णु की उपासना करें ऐसा निर्णय है - जैसे कि संसार में भी स्वामी जो स्वयं उपभोग करता है, वह किसी को नहीं देता है॥१४॥
For worldly pleasure Shri Shiva and for salvation Shri
Vishnu is to be worshipped. This is the decision. Even in the world also, the
master does not give what he himself enjoys.॥14॥
अधिक प्रिय होने पर कभी कभी वह भी दे दिया जाता है पर सामान्य रूप से उनका स्वभाव जानकर ही उनका आश्रय लेना चाहिए॥१५॥
Sometimes even that is given to someone very dear
but this is rare! So one should carefully decide as to which God he/she should
take refuge, based on God's normal behaviour.॥15॥
सबको इसी प्रकार से साधन करना चाहिए क्योंकि दूसरे फल की प्राप्ति में विशेष श्रम है। जीव स्वाभाविक रूप से दुष्ट हैं और सदा दोष की भावना वाले हैं॥१६॥
Everyone should act like this because getting the
second goal is really tough. Jeeva are naturally impure and imperfect.॥16॥
अतः प्रेम पूर्वक प्रभु के चरित्र का श्रवण आदि करने से सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं। श्रीविष्णु के लिए मोक्ष देना सुलभ है और श्रीशिव के लिए भोग॥१७॥
So on listening about the life and glory of God with
love, one can attain everything easily. Salvation is easy to get from Shri
Vishnu and worldly pleasure from Shri Shiva.॥17॥
स्वयं को अचल रूप से उनको समर्पित करें अथवा समर्पित न कर पाने पर भी केवल उनके आश्रित होकर रहें॥१८॥
Surrender to Him completely with unwavering devotion
or if we are unable to do so, we should take refuge in him only.॥18॥
स्वधर्म के पालन के लिए जो कुछ भी करें वह उन पर आश्रित बुद्धि से ही करें अन्यथा श्रम दोगुना लगेगा। इस प्रकार वह सब कुछ कह दिया गया है जिसको जान लेने से फिर भ्रम नहीं होगा॥१९॥
Whatever you do for fulfilling your duty, do it with
complete reliance on him only otherwise it will become double in load. So in
this way everything is told knowing which, there should not be any doubt.॥19॥
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