।।जय श्री कृष्‍ण ।।

Shrinathji
भगवान श्रीनाथजी का प्राकट्य :- भगवान श्रीकृष्ण ने अपने भक्तों की विनती पर आशीर्वाद दिया, समस्त दैवीय जीवों के कल्याण के लिये कलयुग में मैं ब्रजलोक में श्रीनाथजी के नाम से प्रकट होउंगा । उसी भावना को पूर्ण करने ब्रजलोक में मथुरा के निकट जतीपुरा ग्राम में श्री गोवर्धन पर्वत पर भगवान श्रीनाथजी प्रकट हुये । प्राकट्य का समय ज्यों ज्यों निकट आया श्रीनाथजी की लीलाएँ शुरु हो गई । आस पास के ब्रजवासियों की गायें घास चरने श्रीगोवेर्धन पर्वत पर जाती उन्हीं में से सद्द् पाण्डे की घूमर नाम की गाय अपना कुछ दूध श्रीनाथजी के लीला स्थल पर अर्पित कर आती । कई समय तक यह् सिलसिला चलता रहा तो ब्रजवासियों को कौतुहल जगा कि आखिर ये क्या लीला है, उन्होंने खोजबीन की, उन्हें श्रीगिरिराज पर्वत पर श्रीनाथजी की उर्ध्व वाम भुजा के दर्शन हुये। वहीं गौमाताएं अपना दूध चढा आती थी।उन्हें यह् दैवीय चमत्कार लगा और प्रभु की भविष्यवाणी सत्य प्रतीत होती नजर आयी । उन्होंने उर्ध्व भुजा की पुजा आराधना शुरु कर दी। कुछ समय उपरांत संवत् 1535 में वैशाख कृष्ण 11 को गिरिराज पर्वत पर श्रीनाथजी के मुखारविन्द का प्राकट्य हुआ और तदुपरांत सम्पूर्ण स्वरूप का प्राकट्य हुआ। ब्रजवासीगण अपनी श्रद्धानुसार सेवा आराधना करते रहे।
इधर प्रभु की ब्रजलोक में लीलायें चल रही थी, उधर श्रीमहाप्रभुवल्लभाचार्यजी संवत 1549 की फ़ाल्गुन शुक्ल 11 को झारखण्ड की यात्रा पर शुद्वाद्वैत का प्रचार कर रहे थे। श्रीनाथजी ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दे आदेश प्रदान किया कि ब्रजलोक में मेरा प्राकट्य हो चुका है, आप यहाँ आयें और मुझे प्रतिष्ठित करें। श्रीमहाप्रभुवल्लभाचार्यजी प्रभु की लीला से पुर्व में ही अवगत हो चुके थे, वे झारखण्ड की यात्रा बीच में ही छोड मथुरा होते हुये जतीपुरा पहँचे । जतीपुरा में सददू पाण्डे एवं अन्य ब्रजवासियों ने उन्हें देवदमन के श्रीगोवर्धन पर्वत पर प्रकट होने की बात बताई । श्रीमहाप्रभुवल्लभाचार्यजी ने सब ब्रजवासियों बताया की लीला अवतार भगवान श्रीनाथजी का प्राकट्य हुआ है, इस पर सब ब्रजवासी बडे हर्षित हुये।
श्रीमहाप्रभुवल्लभाचार्यजी सभी को साथ ले श्रीगोवर्धन पर्वत पर पहँचे और श्रीनाथजी का भव्य मंदिर निर्माण कराया और ब्रजवासियों को श्रीनाथजी की सेवा आराधना की विधिवत जानकारी प्रदान कर उन्हें श्रीनाथजी की सेवा में नियुक्त किया।
मुगलों के शासन का दौर था, समय अपनी गति से चल रहा था प्रभु को कुछ और लीलाएं करनी थी। दूसरी और उस समय का मुगल सम्राट औरंगजेब हिन्दू आस्थाओं एवं मंदिरों को नष्ट करने पर आमदा था। मेवाड में प्रभु श्रीनाथजी को अपनी परम भक्त मेवाड राजघराने की राजकुमारी अजबकुँवरबाई को दिये वचन को पूरा करने पधारना था। प्रभु ने लीला रची। श्री विट्ठलनाथजी के पोत्र श्री दामोदर जी उनके काका श्री गोविन्दजी, श्री बालकृष्णजी व श्रीवल्लभजी ने औरंगजेब के अत्याचारों की बात सुन चिंतित हो श्रीनाथजी को सुरक्षित स्थान पर बिराजमान कराने का निर्णय किया। प्रभु से आज्ञा प्राप्त कर निकल पडे।
प्रभु का रथ भक्तों के साथ चल पडा, मार्ग में पडने वाली सभी रियासतों (आगरा, किशनगढ कोटा, जोधपुर आदि) के राजाओं से, इन्होने प्रभु को अपने राज्य में प्रतिष्ठित कराने का आग्रह किया, कोई भी राजा मुगल सम्राट ओरंगजेब से दुश्मनी लेने का साहस नही कर सके, सभी ने कुछ समय के लिये, स्थायी व्यवस्था होने तक गुप्त रूप से बिराजने कि विनती की, प्रभु की लीला एवं उपयुक्त समय नही आया मानकर सभी प्रभु के साथ आगे निकल पडे।
मेवाड में पधारने पर रथ का पहिया सिंहाड ग्राम (वर्तमान श्रीनाथद्वारा) में आकर धंस गया, बहुतेरे प्रयत्नों के पश्चात भी पहिया नहीं निकाला जा सका, प्रभु की ऎसी ही लीला जान और सभी प्रयत्न निश्फल मान, प्रभु को यहीं बिराजमान कराने का निश्चय किया गया तत्कालीन महाराणा श्री राजसिंह जी ने प्रभु की भव्य अगवानी कर वचन दिया कि मैं पभु को अपने राज्य में पधारता हूँ, प्रभु के स्वरूप की सुरक्षा की पूर्ण जिम्मेदारी लेता हूँ आप प्रभु को यही बिराजमान करावें संवत १७२८ फाल्गुन कृष्ण ७ को प्रभु श्रीनाथजी वर्तमान मंदिर मे पधारे एवं भव्य पाटोत्सव का मनोरथ हुआ और सिंहाड ग्राम श्रीनाथद्वारा के नाम से प्रसिद्ध हुआ तब से प्रभु श्रीनाथजी के लाखों, करोंडो भक्त प्रतिवर्ष श्रीनाथद्वारा आते हैं एवं अपने आराध्य के दर्शन पा धन्य हो जाते हैं।श्रीनाथजी के दर्शन : प्रात - १. मंगला २. श्रृंगार ३. ग्वाल ४. राजभोग सायं ५. उत्थापन ६. भोग ७. आरती ८. शयन (शयन के दर्शन आश्विन शुक्ल १० से मार्गशीर्ष शुक्ल ७ तक एवं माघ शुक्ल ५ से रामनवमी तक, शेष समय निज मंदिर के अंदर ही खुलते हैं, भक्तों के दर्शनार्थ नहीं खुलते हैं ।)
।। क्‍लीं कृष्‍णाय गोविन्‍दाय गोपीजनवल्‍लभाय नम: ।।
।। श्री कृष्‍ण शरणम् मम: ।।

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